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भीड़ और पागलपन (निशांत कुमार )

Writer: Nishant KumarNishant Kumar

आपने अपनी बालकनी से या सड़क पर जाते हुए उस इंसान को देखा होगा जिसे आप पागल कहते है । ये तय किसने किया कि वोपागल है ? हमने ! और हम कौन है ? अकलमंदो की भीड़ । ये किसने तय किया ? हमने !

कभी आपने पागलों की भीड़ देखी है ? या साथ में दो पागल ही देखे हों ? नहीं देखी होगी ! भीड़ सिर्फ़ उनकी होती है जिसे समाज नेअकलमंद माना है । मैं ये लिख रहा हूँ आप मुझे भी अकल्मंद समझेंगे और खुद को भी ।

इसलिए भी कि कही ना कही आप भी भीड़ में मुझे टकराए होंगे? स्कूल कालेज नौकरी कही भी ।

अगर हम में से कोई इस भीड़ से निकल जाए तो वो पागल माना जाएगा । भीड़ कैसी भी हो आपको हिस्सा बना रहना पड़ेगा किसी नाकिसी भीड़ का। एक भीड़ लिब्रेरी में किताबों में घुसी है , कोई दूसरी सोशल मेडिया पर है कोई भीड़ ओफिस में दिन खपा रही है । मैंअगर आज ही इस भीड़ से निकल जाऊँ या निकलने की ही बात ही करने लगूँ तो मेरे करीबी भी मुझे पागल समझने लगेंगे। और ये बातमैं आज़माने के बाद कह रहा हूँ । हर तरह की भीड़ है , कामयाब या फिसड्डी कहलो , व्यस्त या ख़ाली , सुखी या दुखी । पर उस पागलका क्या ? कौनसी भीड़ में रखेंगे उसको ? किसी में नहीं । भला मानो उन पागलों का , जिन्हें भीड़ बनना या बनाना आता ही नहीं ! दरसल भीड़ का हिस्सा ना होना ही पागलपन है । तय आपने करना है कि भीड़ या पागलपन !

 
 
 

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